लज़्ज़त-ए-इश्क़ इलाही मिट जाए
दर्द अरमान हुआ जाता है
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उज़्र आने में भी है और बुलाते भी नहीं
मेरे क़ाबू में न पहरों दिल-ए-नाशाद आया
भवें तनती हैं ख़ंजर हाथ में है तन के बैठे हैं
बने हैं जब से वो लैला नई महमिल में रहते हैं
दुनिया में जानता हूँ कि जन्नत मुझे मिली
मुअज़्ज़िन ने शब-ए-वस्ल अज़ाँ पिछले पहर
बुतान-ए-माहवश उजड़ी हुई मंज़िल में रहते हैं
ख़ातिर से या लिहाज़ से मैं मान तो गया
दी शब-ए-वस्ल मोअज़्ज़िन ने अज़ाँ पिछली रात
दिल मुब्तला-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ार ही रहा
रह गए लाखों कलेजा थाम कर
अभी हमारी मोहब्बत किसी को क्या मालूम