लाख देने का एक देना था
दिल-ए-बे-मुद्दआ दिया तू ने
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भवें तनती हैं ख़ंजर हाथ में है तन के बैठे हैं
आप पछताएँ नहीं जौर से तौबा न करें
हज़रत-ए-'दाग़' है ये कूचा-ए-क़ातिल उठिए
अभी आई भी नहीं कूचा-ए-दिलबर से सदा
अब वो ये कह रहे हैं मिरी मान जाइए
यूँ भी हज़ारों लाखों में तुम इंतिख़ाब हो
ईद है क़त्ल मिरा अहल-ए-तमाशा के लिए
मिलाते हो उसी को ख़ाक में जो दिल से मिलता है
ग़श खा के 'दाग़' यार के क़दमों पे गिर पड़ा
शोख़ी से ठहरती नहीं क़ातिल की नज़र आज
जब वो बुत हम-कलाम होता है
मुमकिन नहीं कि तेरी मोहब्बत की बू न हो