हज़रत-ए-'दाग़' है ये कूचा-ए-क़ातिल उठिए
जिस जगह बैठते हैं आप तो जम जाते हैं
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बात का ज़ख़्म है तलवार के ज़ख़्मों से सिवा
ये सैर है कि दुपट्टा उड़ा रही है हवा
उधर शर्म हाइल इधर ख़ौफ़ माने
आशिक़ी से मिलेगा ऐ ज़ाहिद
तुम आईना ही न हर बार देखते जाओ
हसरतें ले गए इस बज़्म से चलने वाले
हम भी क्या ज़िंदगी गुज़ार गए
ये तो कहिए इस ख़ता की क्या सज़ा
फ़लक देता है जिन को ऐश उन को ग़म भी होते हैं
हमें है शौक़ कि बे-पर्दा तुम को देखेंगे
ले चला जान मिरी रूठ के जाना तेरा
आप का ए'तिबार कौन करे