हसरतें ले गए इस बज़्म से चलने वाले
हाथ मलते ही उठे इत्र के मलने वाले
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दिल ले के उन की बज़्म में जाया न जाएगा
क्यूँ वस्ल की शब हाथ लगाने नहीं देते
उस के दर तक किसे रसाई है
अयादत को मिरी आ कर वो ये ताकीद करते हैं
चाह की चितवन में आँख उस की शरमाई हुई
ग़श खा के 'दाग़' यार के क़दमों पे गिर पड़ा
काबे की है हवस कभी कू-ए-बुताँ की है
उन के इक जाँ-निसार हम भी हैं
मुमकिन नहीं कि तेरी मोहब्बत की बू न हो
हुआ जब सामना उस ख़ूब-रू से
सितम ही करना जफ़ा ही करना निगाह-ए-उल्फ़त कभी न करना
अजब अपना हाल होता जो विसाल-ए-यार होता