उधर शर्म हाइल इधर ख़ौफ़ माने
न वो देखते हैं न हम देखते हैं
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फिरे राह से वो यहाँ आते आते
शब-ए-वस्ल ज़िद में बसर हो गई
आरज़ू है वफ़ा करे कोई
दिल ही तो है न आए क्यूँ दम ही तो है न जाए क्यूँ
फिर गया जब से कोई आ के हमारे दर तक
शोख़ी से ठहरती नहीं क़ातिल की नज़र आज
दिल को क्या हो गया ख़ुदा जाने
बात तक करनी न आती थी तुम्हें
अभी आई भी नहीं कूचा-ए-दिलबर से सदा
क्या क्या फ़रेब दिल को दिए इज़्तिराब में
ब'अद मुद्दत के ये ऐ 'दाग़' समझ में आया
देखना हश्र में जब तुम पे मचल जाऊँगा