बात तक करनी न आती थी तुम्हें
ये हमारे सामने की बात है
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तुम्हारे ख़त में नया इक सलाम किस का था
क़त्ल की सुन के ख़बर ईद मनाई मैं ने
वो दिन गए कि 'दाग़' थी हर दम बुतों की याद
जो तुम्हारी तरह तुम से कोई झूटे वादे करता
हज़रत-ए-दिल आप हैं किस ध्यान में
तुम अगर अपनी गूँ के हो माशूक़
जोश-ए-रहमत के वास्ते ज़ाहिद
फिरे राह से वो यहाँ आते आते
काबे की है हवस कभी कू-ए-बुताँ की है
हम भी क्या ज़िंदगी गुज़ार गए
लुत्फ़ वो इश्क़ में पाए हैं कि जी जानता है
फ़सुर्दा-दिल कभी ख़ल्वत न अंजुमन में रहे