तुम अगर अपनी गूँ के हो माशूक़
अपने मतलब के यार हम भी हैं
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ग़ैर को मुँह लगा के देख लिया
शब-ए-वस्ल की क्या कहूँ दास्ताँ
उज़्र उन की ज़बान से निकला
साज़ ये कीना-साज़ क्या जानें
चाक हो पर्दा-ए-वहशत मुझे मंज़ूर नहीं
नासेह ने मेरा हाल जो मुझ से बयाँ किया
दिल का क्या हाल कहूँ सुब्ह को जब उस बुत ने
मुझे ऐ अहल-ए-काबा याद क्या मय-ख़ाना आता है
सितम ही करना जफ़ा ही करना निगाह-ए-उल्फ़त कभी न करना
कुछ लाग कुछ लगाव मोहब्बत में चाहिए
अब वो ये कह रहे हैं मिरी मान जाइए
हुआ है चार सज्दों पर ये दावा ज़ाहिदो तुम को