चाक हो पर्दा-ए-वहशत मुझे मंज़ूर नहीं
वर्ना ये हाथ गिरेबान से कुछ दूर नहीं
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कौन सा ताइर-ए-गुम-गश्ता उसे याद आया
ऐ दाग़ अपनी वज़्अ' हमेशा यही रही
छेड़ माशूक़ से कीजे तो ज़रा थम थम कर
जिन को अपनी ख़बर नहीं अब तक
इस वहम में वो 'दाग़' को मरने नहीं देते
तेरी सूरत को देखता हूँ मैं
इफ़्शा-ए-राज़-ए-इश्क़ में गो ज़िल्लतें हुईं
दिल चुरा कर नज़र चुराई है
देखना अच्छा नहीं ज़ानू पे रख कर आइना
चाह की चितवन में आँख उस की शरमाई हुई
फ़लक देता है जिन को ऐश उन को ग़म भी होते हैं
लुत्फ़ वो इश्क़ में पाए हैं कि जी जानता है