छेड़ माशूक़ से कीजे तो ज़रा थम थम कर
रोज़ के नामा ओ पैग़ाम बुरे होते हैं
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फिरे राह से वो यहाँ आते आते
वाइज़ बड़ा मज़ा हो अगर यूँ अज़ाब हो
सितम ही करना जफ़ा ही करना निगाह-ए-उल्फ़त कभी न करना
चाह की चितवन में आँख उस की शरमाई हुई
अभी आई भी नहीं कूचा-ए-दिलबर से सदा
उन की फ़रमाइश नई दिन रात है
समझो पत्थर की तुम लकीर उसे
भरे हैं तुझ में वो लाखों हुनर ऐ मजमअ-ए-ख़ूबी
लुत्फ़-ए-मय तुझ से क्या कहूँ ज़ाहिद
ख़ातिर से या लिहाज़ से मैं मान तो गया
दिल ले के मुफ़्त कहते हैं कुछ काम का नहीं
साज़ ये कीना-साज़ क्या जानें