फिरे राह से वो यहाँ आते आते
अजल मर रही तू कहाँ आते आते
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शब-ए-विसाल है गुल कर दो इन चराग़ों को
देखना अच्छा नहीं ज़ानू पे रख कर आइना
न रोना है तरीक़े का न हँसना है सलीक़े का
आशिक़ी से मिलेगा ऐ ज़ाहिद
शिरकत-ए-ग़म भी नहीं चाहती ग़ैरत मेरी
जो तुम्हारी तरह तुम से कोई झूटे वादे करता
ये तो नहीं कि तुम सा जहाँ में हसीं नहीं
सब लोग जिधर वो हैं उधर देख रहे हैं
तुम्हारे ख़त में नया इक सलाम किस का था
तदबीर से क़िस्मत की बुराई नहीं जाती
सुनाई जाती हैं दर-पर्दा गालियाँ मुझ को
साफ़ कब इम्तिहान लेते हैं