शिरकत-ए-ग़म भी नहीं चाहती ग़ैरत मेरी
ग़ैर की हो के रहे या शब-ए-फ़ुर्क़त मेरी
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बे-तलब जो मिला मिला मुझ को
नासेह ने मेरा हाल जो मुझ से बयाँ किया
दिल गया तुम ने लिया हम क्या करें
जिस ख़त पे ये लगाई उसी का मिला जवाब
भला हो पीर-ए-मुग़ाँ का इधर निगाह मिले
ना-उमीदी बढ़ गई है इस क़दर
ग़श खा के 'दाग़' यार के क़दमों पे गिर पड़ा
ये सैर है कि दुपट्टा उड़ा रही है हवा
मुझ गुनहगार को जो बख़्श दिया
इस वहम में वो 'दाग़' को मरने नहीं देते
ज़िक्र-ए-मेहर-ओ-वफ़ा तो हम करते
जब वो बुत हम-कलाम होता है