नासेह ने मेरा हाल जो मुझ से बयाँ किया
आँसू टपक पड़े मिरे बे-इख़्तियार आज
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चाह की चितवन में आँख उस की शरमाई हुई
लीजिए सुनिए अब अफ़्साना-ए-फ़ुर्क़त मुझ से
क्या लुत्फ़-ए-दोस्ती कि नहीं लुत्फ़-ए-दुश्मनी
उस के दर तक किसे रसाई है
न जाना कि दुनिया से जाता है कोई
आती है बात बात मुझे बार बार याद
इलाही क्यूँ नहीं उठती क़यामत माजरा क्या है
निगाह-ए-शोख़ जब उस से लड़ी है
ग़म से कहीं नजात मिले चैन पाएँ हम
ये तो कहिए इस ख़ता की क्या सज़ा
दिल ले के मुफ़्त कहते हैं कुछ काम का नहीं
भरे हैं तुझ में वो लाखों हुनर ऐ मजमअ-ए-ख़ूबी