न जाना कि दुनिया से जाता है कोई
बहुत देर की मेहरबाँ आते आते
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हज़ार बार जो माँगा करो तो क्या हासिल
ग़श खा के 'दाग़' यार के क़दमों पे गिर पड़ा
क्या तर्ज़-ए-कलाम हो गई है
हो चुका ऐश का जल्सा तू मुझे ख़त भेजा
ख़ातिर से या लिहाज़ से मैं मान तो गया
कल तक तो आश्ना थे मगर आज ग़ैर हो
जो तुम्हारी तरह तुम से कोई झूटे वादे करता
अब वो ये कह रहे हैं मिरी मान जाइए
अभी आई भी नहीं कूचा-ए-दिलबर से सदा
फिरे राह से वो यहाँ आते आते
न समझा उम्र गुज़री उस बुत-ए-काफ़र को समझाते
मज़े इश्क़ के कुछ वही जानते हैं