नहीं खेल ऐ 'दाग़' यारों से कह दो
कि आती है उर्दू ज़बाँ आते आते
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ये बात बात में क्या नाज़ुकी निकलती है
इफ़्शा-ए-राज़-ए-इश्क़ में गो ज़िल्लतें हुईं
मिरी आह का तुम असर देख लेना
मुझ सा न दे ज़माने को परवरदिगार दिल
सितम ही करना जफ़ा ही करना निगाह-ए-उल्फ़त कभी न करना
ग़श खा के 'दाग़' यार के क़दमों पे गिर पड़ा
कहने देती नहीं कुछ मुँह से मोहब्बत मेरी
मैं भी हैरान हूँ ऐ 'दाग़' कि ये बात है क्या
हो सके क्या अपनी वहशत का इलाज
भरे हैं तुझ में वो लाखों हुनर ऐ मजमअ-ए-ख़ूबी
ज़ीस्त से तंग हो ऐ 'दाग़' तो जीते क्यूँ हो
तबीअ'त कोई दिन में भर जाएगी