तबीअ'त कोई दिन में भर जाएगी
चढ़ी है ये नद्दी उतर जाएगी
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उज़्र उन की ज़बान से निकला
हो चुका ऐश का जल्सा तू मुझे ख़त भेजा
इलाही क्यूँ नहीं उठती क़यामत माजरा क्या है
'मीर' का रंग बरतना नहीं आसाँ ऐ 'दाग़'
सितम ही करना जफ़ा ही करना निगाह-ए-उल्फ़त कभी न करना
जो हो सकता है उस से वो किसी से हो नहीं सकता
हाथ निकले अपने दोनों काम के
क्या क्या फ़रेब दिल को दिए इज़्तिराब में
खुलता नहीं है राज़ हमारे बयान से
वो ज़माना नज़र नहीं आता
जली हैं धूप में शक्लें जो माहताब की थीं
तमाशा-ए-दैर-ओ-हरम देखते हैं