सुनाई जाती हैं दर-पर्दा गालियाँ मुझ को
कहूँ जो मैं तो कहे आप से कलाम नहीं
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इस वहम में वो 'दाग़' को मरने नहीं देते
मोहब्बत में आराम सब चाहते हैं
रह गए लाखों कलेजा थाम कर
मज़े इश्क़ के कुछ वही जानते हैं
डरता हूँ देख कर दिल-ए-बे-आरज़ू को मैं
अयादत को मिरी आ कर वो ये ताकीद करते हैं
फ़लक देता है जिन को ऐश उन को ग़म भी होते हैं
फिरता है मेरे दिल में कोई हर्फ़-ए-मुद्दआ
रंज की जब गुफ़्तुगू होने लगी
'दाग़' को कौन देने वाला था
तुम आईना ही न हर बार देखते जाओ
जिस में लाखों बरस की हूरें हों