सुन के मिरा फ़साना उन्हें लुत्फ़ आ गया
सुनता हूँ अब कि रोज़ तलब क़िस्सा-ख़्वाँ की है
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सबक़ ऐसा पढ़ा दिया तू ने
बे-तलब जो मिला मिला मुझ को
ग़म्ज़ा भी हो सफ़्फ़ाक निगाहें भी हों ख़ूँ-रेज़
वो जाते हैं आती है क़यामत की सहर आज
जाओ भी क्या करोगे मेहर-ओ-वफ़ा
ज़माना दोस्ती पर इन हसीनों की न इतराए
रह गए लाखों कलेजा थाम कर
वो जब चले तो क़यामत बपा थी चारों तरफ़
खुलता नहीं है राज़ हमारे बयान से
'मीर' का रंग बरतना नहीं आसाँ ऐ 'दाग़'
मिलाते हो उसी को ख़ाक में जो दिल से मिलता है
साज़ ये कीना-साज़ क्या जानें