जाओ भी क्या करोगे मेहर-ओ-वफ़ा
बार-हा आज़मा के देख लिया
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बे-ज़बानी ज़बाँ न हो जाए
मैं भी हैरान हूँ ऐ 'दाग़' कि ये बात है क्या
तमाशा-ए-दैर-ओ-हरम देखते हैं
दी शब-ए-वस्ल मोअज़्ज़िन ने अज़ाँ पिछली रात
न जाना कि दुनिया से जाता है कोई
उज़्र उन की ज़बान से निकला
शब-ए-वस्ल ज़िद में बसर हो गई
मुमकिन नहीं कि तेरी मोहब्बत की बू न हो
शब-ए-विसाल है गुल कर दो इन चराग़ों को
लज़्ज़त-ए-इश्क़ इलाही मिट जाए
जिस में लाखों बरस की हूरें हों
दिल में समा गई हैं क़यामत की शोख़ियाँ