दिल में समा गई हैं क़यामत की शोख़ियाँ
दो-चार दिन रहा था किसी की निगाह में
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दिल क्या मिलाओगे कि हमें हो गया यक़ीं
बने हैं जब से वो लैला नई महमिल में रहते हैं
चाक हो पर्दा-ए-वहशत मुझे मंज़ूर नहीं
अभी हमारी मोहब्बत किसी को क्या मालूम
कुछ लाग कुछ लगाव मोहब्बत में चाहिए
रूह किस मस्त की प्यासी गई मय-ख़ाने से
ख़बर सुन कर मिरे मरने की वो बोले रक़ीबों से
वो कहते हैं क्या ज़ोर उठाओगे तुम ऐ 'दाग़'
इधर देख लेना उधर देख लेना
ज़माना दोस्ती पर इन हसीनों की न इतराए
भवें तनती हैं ख़ंजर हाथ में है तन के बैठे हैं
मुअज़्ज़िन ने शब-ए-वस्ल अज़ाँ पिछले पहर