वो कहते हैं क्या ज़ोर उठाओगे तुम ऐ 'दाग़'
तुम से तो मिरा नाज़ उठाया नहीं जाता
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ग़ैर को मुँह लगा के देख लिया
दिल क्या मिलाओगे कि हमें हो गया यक़ीं
ये मज़ा था दिल-लगी का कि बराबर आग लगती
बे-ज़बानी ज़बाँ न हो जाए
नासेह ने मेरा हाल जो मुझ से बयाँ किया
उन की फ़रमाइश नई दिन रात है
ये तो कहिए इस ख़ता की क्या सज़ा
पयामी कामयाब आए न आए
सुन के मिरा फ़साना उन्हें लुत्फ़ आ गया
जिन को अपनी ख़बर नहीं अब तक
इधर देख लेना उधर देख लेना
लुत्फ़-ए-मय तुझ से क्या कहूँ ज़ाहिद