ये मज़ा था दिल-लगी का कि बराबर आग लगती
न तुझे क़रार होता न मुझे क़रार होता
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हसरतें ले गए इस बज़्म से चलने वाले
क्या क्या फ़रेब दिल को दिए इज़्तिराब में
ये तो कहिए इस ख़ता की क्या सज़ा
इस क़दर नाज़ है क्यूँ आप को यकताई का
दिल का क्या हाल कहूँ सुब्ह को जब उस बुत ने
दिल ही तो है न आए क्यूँ दम ही तो है न जाए क्यूँ
क्या पूछते हो कौन है ये किस की है शोहरत
फिरता है मेरे दिल में कोई हर्फ़-ए-मुद्दआ
जल्वे मिरी निगाह में कौन-ओ-मकाँ के हैं
सितम ही करना जफ़ा ही करना निगाह-ए-उल्फ़त कभी न करना
कौन सा ताइर-ए-गुम-गश्ता उसे याद आया
तेरी सूरत को देखता हूँ मैं