क्या पूछते हो कौन है ये किस की है शोहरत
क्या तुम ने कभी 'दाग़' का दीवाँ नहीं देखा
Faiz Ahmad Faiz
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उस के दर तक किसे रसाई है
बे-ज़बानी ज़बाँ न हो जाए
उधर शर्म हाइल इधर ख़ौफ़ माने
चुप-चाप सुनती रहती है पहरों शब-ए-फ़िराक़
दिल ही तो है न आए क्यूँ दम ही तो है न जाए क्यूँ
तुम को चाहा तो ख़ता क्या है बता दो मुझ को
फ़लक देता है जिन को ऐश उन को ग़म भी होते हैं
ये सैर है कि दुपट्टा उड़ा रही है हवा
उज़्र उन की ज़बान से निकला
ये मज़ा था दिल-लगी का कि बराबर आग लगती
वो जब चले तो क़यामत बपा थी चारों तरफ़
ज़माने के क्या क्या सितम देखते हैं