तुम को चाहा तो ख़ता क्या है बता दो मुझ को
दूसरा कोई तो अपना सा दिखा दो मुझ को
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जली हैं धूप में शक्लें जो माहताब की थीं
मिलाते हो उसी को ख़ाक में जो दिल से मिलता है
देखना हश्र में जब तुम पे मचल जाऊँगा
वो ज़माना नज़र नहीं आता
तुम्हारे ख़त में नया इक सलाम किस का था
हुआ है चार सज्दों पर ये दावा ज़ाहिदो तुम को
शब-ए-विसाल है गुल कर दो इन चराग़ों को
इस वहम में वो 'दाग़' को मरने नहीं देते
कल तक तो आश्ना थे मगर आज ग़ैर हो
हसरतें ले गए इस बज़्म से चलने वाले
हुआ जब सामना उस ख़ूब-रू से
क़त्ल की सुन के ख़बर ईद मनाई मैं ने