डरता हूँ देख कर दिल-ए-बे-आरज़ू को मैं
सुनसान घर ये क्यूँ न हो मेहमान तो गया
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रंज की जब गुफ़्तुगू होने लगी
इलाही क्यूँ नहीं उठती क़यामत माजरा क्या है
इक अदा मस्ताना सर से पाँव तक छाई हुई
सितम ही करना जफ़ा ही करना निगाह-ए-उल्फ़त कभी न करना
भला हो पीर-ए-मुग़ाँ का इधर निगाह मिले
सर मेरा काट के पछ्ताइएगा
आप का ए'तिबार कौन करे
ग़ज़ब किया तिरे वअ'दे पे ए'तिबार किया
मुझे ऐ अहल-ए-काबा याद क्या मय-ख़ाना आता है
इस अदा से वो जफ़ा करते हैं
ज़माना दोस्ती पर इन हसीनों की न इतराए