इलाही क्यूँ नहीं उठती क़यामत माजरा क्या है
हमारे सामने पहलू में वो दुश्मन के बैठे हैं
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उन के इक जाँ-निसार हम भी हैं
रंज की जब गुफ़्तुगू होने लगी
यूँ भी हज़ारों लाखों में तुम इंतिख़ाब हो
सितम ही करना जफ़ा ही करना निगाह-ए-उल्फ़त कभी न करना
चुप-चाप सुनती रहती है पहरों शब-ए-फ़िराक़
उन की फ़रमाइश नई दिन रात है
मोहब्बत का असर जाता कहाँ है
जिस जगह बैठे मिरा चर्चा किया
उज़्र उन की ज़बान से निकला
फिरे राह से वो यहाँ आते आते
समझो पत्थर की तुम लकीर उसे