इस लिए वस्ल से इंकार है हम जान गए
ये न समझे कोई क्या जल्द कहा मान गए
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आती है बात बात मुझे बार बार याद
क्या लुत्फ़-ए-दोस्ती कि नहीं लुत्फ़-ए-दुश्मनी
पूछिए मय-कशों से लुत्फ़-ए-शराब
हज़ार बार जो माँगा करो तो क्या हासिल
वो जाते हैं आती है क़यामत की सहर आज
तमाशा-ए-दैर-ओ-हरम देखते हैं
भवें तनती हैं ख़ंजर हाथ में है तन के बैठे हैं
सुन के मिरा फ़साना उन्हें लुत्फ़ आ गया
इस नहीं का कोई इलाज नहीं
मिन्नतों से भी न वो हूर-शमाइल आया
मैं भी हैरान हूँ ऐ 'दाग़' कि ये बात है क्या
ये मज़ा था दिल-लगी का कि बराबर आग लगती