सर मिरा काट के पछ्ताइएगा
झूटी फिर किस की क़सम खाइएगा
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बने हैं जब से वो लैला नई महमिल में रहते हैं
हज़रत-ए-'दाग़' है ये कूचा-ए-क़ातिल उठिए
बात मेरी कभी सुनी ही नहीं
अब वो ये कह रहे हैं मिरी मान जाइए
रुख़-ए-रौशन के आगे शम्अ रख कर वो ये कहते हैं
वो जाते हैं आती है क़यामत की सहर आज
आशिक़ी से मिलेगा ऐ ज़ाहिद
इस नहीं का कोई इलाज नहीं
ये बात बात में क्या नाज़ुकी निकलती है
कोई छींटा पड़े तो 'दाग़' कलकत्ते चले जाएँ
पयामी कामयाब आए न आए
तमाशा-ए-दैर-ओ-हरम देखते हैं