साथ शोख़ी के कुछ हिजाब भी है
इस अदा का कहीं जवाब भी है
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चुप-चाप सुनती रहती है पहरों शब-ए-फ़िराक़
आप का ए'तिबार कौन करे
इफ़्शा-ए-राज़-ए-इश्क़ में गो ज़िल्लतें हुईं
देखना अच्छा नहीं ज़ानू पे रख कर आइना
इलाही क्यूँ नहीं उठती क़यामत माजरा क्या है
इस लिए वस्ल से इंकार है हम जान गए
जो हो सकता है उस से वो किसी से हो नहीं सकता
दिल ले के उन की बज़्म में जाया न जाएगा
अजब अपना हाल होता जो विसाल-ए-यार होता
ज़िद हर इक बात पर नहीं अच्छी
सबक़ ऐसा पढ़ा दिया तू ने
वो कहते हैं क्या ज़ोर उठाओगे तुम ऐ 'दाग़'