तदबीर से क़िस्मत की बुराई नहीं जाती
बिगड़ी हुई तक़दीर बनाई नहीं जाती
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अब तो बीमार-ए-मोहब्बत तेरे
बात मेरी कभी सुनी ही नहीं
तेरी सूरत को देखता हूँ मैं
सितम ही करना जफ़ा ही करना निगाह-ए-उल्फ़त कभी न करना
फिर शब-ए-ग़म ने मुझे शक्ल दिखाई क्यूँकर
अजब अपना हाल होता जो विसाल-ए-यार होता
फ़सुर्दा-दिल कभी ख़ल्वत न अंजुमन में रहे
छेड़ माशूक़ से कीजे तो ज़रा थम थम कर
ज़माने के क्या क्या सितम देखते हैं
मज़े इश्क़ के कुछ वही जानते हैं
बाक़ी जहाँ में क़ैस न फ़रहाद रह गया
फ़लक देता है जिन को ऐश उन को ग़म भी होते हैं