तमाशा-ए-दैर-ओ-हरम देखते हैं
तुझे हर बहाने से हम देखते हैं
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तुम्हारे ख़त में नया इक सलाम किस का था
साज़ ये कीना-साज़ क्या जानें
न समझा उम्र गुज़री उस बुत-ए-काफ़र को समझाते
मर्ग-ए-दुश्मन का ज़ियादा तुम से है मुझ को मलाल
बहुत रोया हूँ मैं जब से ये मैं ने ख़्वाब देखा है
मुझे याद करने से ये मुद्दआ था
ज़िद हर इक बात पर नहीं अच्छी
साक़िया तिश्नगी की ताब नहीं
वो ज़माना भी तुम्हें याद है तुम कहते थे
जिस में लाखों बरस की हूरें हों
समझो पत्थर की तुम लकीर उसे
मिन्नतों से भी न वो हूर-शमाइल आया