ज़ीस्त से तंग हो ऐ 'दाग़' तो जीते क्यूँ हो
जान प्यारी भी नहीं जान से जाते भी नहीं
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लुत्फ़ वो इश्क़ में पाए हैं कि जी जानता है
हसरतें ले गए इस बज़्म से चलने वाले
तदबीर से क़िस्मत की बुराई नहीं जाती
फिर शब-ए-ग़म ने मुझे शक्ल दिखाई क्यूँकर
उर्दू है जिस का नाम हमीं जानते हैं 'दाग़'
ग़श खा के 'दाग़' यार के क़दमों पे गिर पड़ा
ख़ातिर से या लिहाज़ से मैं मान तो गया
क्या पूछते हो कौन है ये किस की है शोहरत
तुम को आशुफ़्ता-मिज़ाजों की ख़बर से क्या काम
मुझ को मज़ा है छेड़ का दिल मानता नहीं
जल्वे मिरी निगाह में कौन-ओ-मकाँ के हैं
ग़ज़ब किया तिरे वअ'दे पे ए'तिबार किया