ज़िक्र-ए-मेहर-ओ-वफ़ा तो हम करते
पर तुम्हें शर्मसार कौन करे
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जली हैं धूप में शक्लें जो माहताब की थीं
कहीं है ईद की शादी कहीं मातम है मक़्तल में
और होंगे तिरी महफ़िल से उभरने वाले
ज़ालिम ने क्या निकाली रफ़्तार रफ़्ता रफ़्ता
डरता हूँ देख कर दिल-ए-बे-आरज़ू को मैं
ये तो नहीं कि तुम सा जहाँ में हसीं नहीं
ख़ार-ए-हसरत बयान से निकला
बहुत रोया हूँ मैं जब से ये मैं ने ख़्वाब देखा है
लज़्ज़त-ए-इश्क़ इलाही मिट जाए
फ़लक देता है जिन को ऐश उन को ग़म भी होते हैं
दिल-ए-नाकाम के हैं काम ख़राब
ज़ीस्त से तंग हो ऐ 'दाग़' तो जीते क्यूँ हो