ख़ार-ए-हसरत बयान से निकला
दिल का काँटा ज़बान से निकला
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ग़म से कहीं नजात मिले चैन पाएँ हम
अब वो ये कह रहे हैं मिरी मान जाइए
वादा झूटा कर लिया चलिए तसल्ली हो गई
जब वो बुत हम-कलाम होता है
दी शब-ए-वस्ल मोअज़्ज़िन ने अज़ाँ पिछली रात
तुम्हारे ख़त में नया इक सलाम किस का था
क्यूँ वस्ल की शब हाथ लगाने नहीं देते
मिन्नतों से भी न वो हूर-शमाइल आया
मिलाते हो उसी को ख़ाक में जो दिल से मिलता है
यूँ भी हज़ारों लाखों में तुम इंतिख़ाब हो
लुत्फ़ वो इश्क़ में पाए हैं कि जी जानता है
उड़ गई यूँ वफ़ा ज़माने से