और होंगे तिरी महफ़िल से उभरने वाले
हज़रत-ए-'दाग़' जहाँ बैठ गए बैठ गए
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साज़ ये कीना-साज़ क्या जानें
मुमकिन नहीं कि तेरी मोहब्बत की बू न हो
तुम्हारे ख़त में नया इक सलाम किस का था
तमाशा-ए-दैर-ओ-हरम देखते हैं
नासेह ने मेरा हाल जो मुझ से बयाँ किया
निगह निकली न दिल की चोर ज़ुल्फ़-ए-अम्बरीं निकली
इस वहम में वो 'दाग़' को मरने नहीं देते
सर मेरा काट के पछ्ताइएगा
जब वो बुत हम-कलाम होता है
कोई नाम-ओ-निशाँ पूछे तो ऐ क़ासिद बता देना
दिल दे तो इस मिज़ाज का परवरदिगार दे
'दाग़' को कौन देने वाला था