निगह निकली न दिल की चोर ज़ुल्फ़-ए-अम्बरीं निकली
इधर ला हाथ मुट्ठी खोल ये चोरी यहीं निकली
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लीजिए सुनिए अब अफ़्साना-ए-फ़ुर्क़त मुझ से
ऐ दाग़ अपनी वज़्अ' हमेशा यही रही
फिरता है मेरे दिल में कोई हर्फ़-ए-मुद्दआ
शब-ए-वस्ल की क्या कहूँ दास्ताँ
ग़ज़ब किया तिरे वअ'दे पे ए'तिबार किया
कहते हैं जिस को हूर वो इंसाँ तुम्हीं तो हो
जिस जगह बैठे मिरा चर्चा किया
चाक हो पर्दा-ए-वहशत मुझे मंज़ूर नहीं
ग़म्ज़ा भी हो सफ़्फ़ाक निगाहें भी हों ख़ूँ-रेज़
दिल दे तो इस मिज़ाज का परवरदिगार दे
ख़ुदा की क़सम उस ने खाई जो आज
जाओ भी क्या करोगे मेहर-ओ-वफ़ा