शब-ए-वस्ल की क्या कहूँ दास्ताँ
ज़बाँ थक गई गुफ़्तुगू रह गई
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जो गुज़रते हैं 'दाग़' पर सदमे
जाओ भी क्या करोगे मेहर-ओ-वफ़ा
क़रीने से अजब आरास्ता क़ातिल की महफ़िल है
इक अदा मस्ताना सर से पाँव तक छाई हुई
हुआ जब सामना उस ख़ूब-रू से
बे-तलब जो मिला मिला मुझ को
हज़ारों काम मोहब्बत में हैं मज़े के 'दाग़'
इस अदा से वो जफ़ा करते हैं
इस वहम में वो 'दाग़' को मरने नहीं देते
इलाही क्यूँ नहीं उठती क़यामत माजरा क्या है
तुम्हारे ख़त में नया इक सलाम किस का था
बाक़ी जहाँ में क़ैस न फ़रहाद रह गया