शब-ए-वस्ल ज़िद में बसर हो गई
नहीं होते होते सहर हो गई
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क्या क्या फ़रेब दिल को दिए इज़्तिराब में
बात मेरी कभी सुनी ही नहीं
ग़ज़ब किया तिरे वअ'दे पे ए'तिबार किया
उधर शर्म हाइल इधर ख़ौफ़ माने
ज़माने के क्या क्या सितम देखते हैं
अभी हमारी मोहब्बत किसी को क्या मालूम
ये तो कहिए इस ख़ता की क्या सज़ा
हो चुका ऐश का जल्सा तू मुझे ख़त भेजा
निगाह-ए-शोख़ जब उस से लड़ी है
ख़ातिर से या लिहाज़ से मैं मान तो गया
जोश-ए-रहमत के वास्ते ज़ाहिद
बुतान-ए-माहवश उजड़ी हुई मंज़िल में रहते हैं