फिर गया जब से कोई आ के हमारे दर तक
घर के बाहर ही पड़े रहते हैं घर छोड़ दिया
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'मीर' का रंग बरतना नहीं आसाँ ऐ 'दाग़'
दिल क्या मिलाओगे कि हमें हो गया यक़ीं
दिल-ए-नाकाम के हैं काम ख़राब
काबे की है हवस कभी कू-ए-बुताँ की है
क्या पूछते हो कौन है ये किस की है शोहरत
रह गए लाखों कलेजा थाम कर
न रोना है तरीक़े का न हँसना है सलीक़े का
लुत्फ़-ए-मय तुझ से क्या कहूँ ज़ाहिद
दिल का क्या हाल कहूँ सुब्ह को जब उस बुत ने
वादा झूटा कर लिया चलिए तसल्ली हो गई
भवें तनती हैं ख़ंजर हाथ में है तन के बैठे हैं
और होंगे तिरी महफ़िल से उभरने वाले