ख़ुदा की क़सम उस ने खाई जो आज
क़सम है ख़ुदा की मज़ा आ गया
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हाथ निकले अपने दोनों काम के
वो दिन गए कि 'दाग़' थी हर दम बुतों की याद
उज़्र उन की ज़बान से निकला
अब तो बीमार-ए-मोहब्बत तेरे
देखना हश्र में जब तुम पे मचल जाऊँगा
चाक हो पर्दा-ए-वहशत मुझे मंज़ूर नहीं
अच्छी सूरत पे ग़ज़ब टूट के आना दिल का
ज़िद हर इक बात पर नहीं अच्छी
ईद है क़त्ल मिरा अहल-ए-तमाशा के लिए
क्या तर्ज़-ए-कलाम हो गई है
दिल ही तो है न आए क्यूँ दम ही तो है न जाए क्यूँ
हज़ारों काम मोहब्बत में हैं मज़े के 'दाग़'