की तर्क-ए-मय तो माइल-ए-पिंदार हो गया
मैं तौबा कर के और गुनहगार हो गया
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दिल ही तो है न आए क्यूँ दम ही तो है न जाए क्यूँ
डरते हैं चश्म ओ ज़ुल्फ़ ओ निगाह ओ अदा से हम
उज़्र उन की ज़बान से निकला
इस लिए वस्ल से इंकार है हम जान गए
सबक़ ऐसा पढ़ा दिया तू ने
साथ शोख़ी के कुछ हिजाब भी है
मिन्नतों से भी न वो हूर-शमाइल आया
बड़ा मज़ा हो जो महशर में हम करें शिकवा
सब लोग जिधर वो हैं उधर देख रहे हैं
शिरकत-ए-ग़म भी नहीं चाहती ग़ैरत मेरी
क्यूँ वस्ल की शब हाथ लगाने नहीं देते
बात का ज़ख़्म है तलवार के ज़ख़्मों से सिवा