मुझ गुनहगार को जो बख़्श दिया
तो जहन्नम को क्या दिया तू ने
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इस अदा से वो जफ़ा करते हैं
मेरे क़ाबू में न पहरों दिल-ए-नाशाद आया
उन के इक जाँ-निसार हम भी हैं
ज़माने के क्या क्या सितम देखते हैं
साक़िया तिश्नगी की ताब नहीं
ग़ज़ब किया तिरे वअ'दे पे ए'तिबार किया
ख़ातिर से या लिहाज़ से मैं मान तो गया
जाओ भी क्या करोगे मेहर-ओ-वफ़ा
ये तो कहिए इस ख़ता की क्या सज़ा
लीजिए सुनिए अब अफ़्साना-ए-फ़ुर्क़त मुझ से
ज़ीस्त से तंग हो ऐ 'दाग़' तो जीते क्यूँ हो
इस नहीं का कोई इलाज नहीं