जिस ख़त पे ये लगाई उसी का मिला जवाब
इक मोहर मेरे पास है दुश्मन के नाम की
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हम भी क्या ज़िंदगी गुज़ार गए
कहते हैं जिस को हूर वो इंसाँ तुम्हीं तो हो
इस नहीं का कोई इलाज नहीं
डरता हूँ देख कर दिल-ए-बे-आरज़ू को मैं
ये तो नहीं कि तुम सा जहाँ में हसीं नहीं
हो सके क्या अपनी वहशत का इलाज
देखना अच्छा नहीं ज़ानू पे रख कर आइना
ज़ाहिद न कह बुरी कि ये मस्ताने आदमी हैं
सितम ही करना जफ़ा ही करना निगाह-ए-उल्फ़त कभी न करना
क्या क्या फ़रेब दिल को दिए इज़्तिराब में
दिल परेशान हुआ जाता है
चाक हो पर्दा-ए-वहशत मुझे मंज़ूर नहीं