उज़्र आने में भी है और बुलाते भी नहीं
बाइस-ए-तर्क-ए-मुलाक़ात बताते भी नहीं
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ख़ूब पर्दा है कि चिलमन से लगे बैठे हैं
भला हो पीर-ए-मुग़ाँ का इधर निगाह मिले
ज़ालिम ने क्या निकाली रफ़्तार रफ़्ता रफ़्ता
बे-ज़बानी ज़बाँ न हो जाए
दिल ले के उन की बज़्म में जाया न जाएगा
अभी हमारी मोहब्बत किसी को क्या मालूम
इस लिए वस्ल से इंकार है हम जान गए
दुनिया में जानता हूँ कि जन्नत मुझे मिली
दी शब-ए-वस्ल मोअज़्ज़िन ने अज़ाँ पिछली रात
निगह निकली न दिल की चोर ज़ुल्फ़-ए-अम्बरीं निकली
उस के दर तक किसे रसाई है
दफ़अ'तन तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ में भी रुस्वाई है