दफ़अ'तन तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ में भी रुस्वाई है
उलझे दामन को छुड़ाते नहीं झटका दे कर
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हाथ निकले अपने दोनों काम के
लुत्फ़-ए-मय तुझ से क्या कहूँ ज़ाहिद
आप पछताएँ नहीं जौर से तौबा न करें
ले चला जान मिरी रूठ के जाना तेरा
क्या तर्ज़-ए-कलाम हो गई है
फ़लक देता है जिन को ऐश उन को ग़म भी होते हैं
शब-ए-वस्ल की क्या कहूँ दास्ताँ
बे-ज़बानी ज़बाँ न हो जाए
जिस जगह बैठे मिरा चर्चा किया
अच्छी सूरत पे ग़ज़ब टूट के आना दिल का
सुनाई जाती हैं दर-पर्दा गालियाँ मुझ को
ये तो नहीं कि तुम सा जहाँ में हसीं नहीं