हम चटानें हैं कोई रेत के साहिल तो नहीं
शौक़ से शहर-पनाहों में लगा दो हम को
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दिल की रग़बत है जब आप ही की तरफ़
परस्तिश-ए-ग़म का शुक्रिया क्या तुझे आगही नहीं
आया नहीं है राह पे चर्ख़-ए-कुहन अभी
हम हक़ीक़त हैं तो तस्लीम न करने का सबब
इश्क़ की दुनिया में इक हंगामा बरपा कर दिया
ख़ाक से सैंकड़ों उगे ख़ुर्शीद
तुम सादा-मिज़ाजी से मिटे फिरते हो जिस पर
कौन देता है मोहब्बत को परस्तिश का मक़ाम
बैठे बैठे उन की महफ़िल याद आ जाती है जब
रंग-ए-तहज़ीब-ओ-तमद्दुन के शनासा हम भी हैं
सता लो मुझे ज़िंदगी में सता लो
मैं जिस रफ़्तार से तूफ़ाँ की जानिब बढ़ता जाता हूँ