इस तरह आते हैं अंजाम-ए-मोहब्बत के ख़याल
इशरतों में दिल की पैग़ाम-ए-अलम देते हुए
जैसे खेतों के किनारों पर उतरती धूप में
सर-निगूँ शाख़ों के साए करवटें लेते हुए
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'एहसान' अपना कोई बुरे वक़्त का नहीं
ये उजालों के जज़ीरे ये सराबों के दयार
हम चटानें हैं कोई रेत के साहिल तो नहीं
जो ले के उन की तमन्ना के ख़्वाब निकलेगा
कल रात कुछ अजीब समाँ ग़म-कदे में था
हाँ आप को देखा था मोहब्बत से हमीं ने
कौन देता है मोहब्बत को परस्तिश का मक़ाम
दिल की शगुफ़्तगी के साथ राहत-ए-मय-कदा गई
तौबा की नाज़िशों पे सितम ढा के पी गया
मौसम से रंग-ओ-बू हैं ख़फ़ा देखते चलो
परस्तिश-ए-ग़म का शुक्रिया क्या तुझे आगही नहीं
दोपहर मैदान गर्मी हब्स अब्र-ए-बे-मता