उसी तरफ़ है ज़माना भी आज महव-ए-सफ़र
'फ़राग़' मैं ने जिधर से गुज़रना चाहा था
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कभी हरीफ़ कभी हम-नवा हमीं ठहरे
कम्पयूटर
ख़ूब निभेगी हम दोनों में मेरे जैसा तू भी है
किसी ने राह का पत्थर हमीं को ठहराया
हमारे तन पे कोई क़ीमती क़बा न सही
हमारे साथ उमीद-ए-बहार तुम भी करो
स्कूल-टीचर
इक दिन वो मेरे ऐब गिनाने लगा 'फ़राग़'
देखा जो आईना तो मुझे सोचना पड़ा
मेरी दादी
गुड़िया की शादी
कभी यक़ीं से हुई और कभी गुमाँ से हुई