मुसलसल अश्क-बारी हो रही है

मुसलसल अश्क-बारी हो रही है

मिरी मिट्टी बहारी हो रही है

दिए की एक लौ और तख़्ता-ए-शब

अजब सूरत-निगारी हो रही है

ये मेरा कुछ न होना दर्ज कर लो

अगर मरदुम-शुमारी हो रही है

मैं जुगनू और तू इतनी बड़ी रात

ज़रा सी चीज़ भारी हो रही है

बहुत भारी हैं अब मिट्टी की पलकें

बदन पर नींद तारी हो रही है

ये बाहर शोर कैसा हो रहा है

ये कैसी मारा-मारी हो रही है

ज़रा हाथों में मेरे हाथ देना

बड़ी बे-अख़्तियारी हो रही है

हम अपने आप से बिछड़े हुए हैं

तभी तो इतनी ख़्वारी हो रही है

वही फिर यक-क़लम मंसूख़ हूँ मैं

किताब-ए-इश्क़ जारी हो रही है

कहाँ रख आए वो सादा-लिबासी

ये क्या गोटा कनारी हो रही है

नहीं होती ये हरजाई किसी की

तो क्यूँ दुनिया हमारी हो रही है

सुनाओ शे'र अपने 'फ़रहत-एहसास'

ये शब क्या ख़ूब क़ारी हो रही है

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