दर-अस्ल इस जहाँ को ज़रूरत नहीं मिरी
हर-चंद इस जहाँ के लिए ना-गुज़ीर मैं
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आख़िर उस के हुस्न की मुश्किल को हल मैं ने किया
फिर वही मौसम-ए-जुदाई है
ब-रंग-ए-सब्ज़ा उन्ही साहिलों पे जम जाएँ
तुम नहीं माने
पीला कुत्ता
हम अपने आप को अपने से कम भी करते रहते हैं
जिस्म का कूज़ा है अपना और न ये दरिया-ए-जाँ
औरतें काम पे निकली थीं बदन घर रख कर
दिन ने इतना जो मरीज़ाना बना रक्खा है
इश्क़ भी करना है हम को और ज़िंदा भी रहना है
तहरीर की फ़ुर्सत
ख़ाक है मेरा बदन ख़ाक ही उस का होगा