धूप बोली कि मैं आबाई वतन हूँ तेरा
मैं ने फिर साया-ए-दीवार को ज़हमत नहीं दी
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महफ़िल में अब के आओ तो ऐसी ख़ता न हो
तिरे होंटों के सहरा में तिरी आँखों के जंगल में
इक हवा सा मिरे सीने से मिरा यार गया
तह-ए-बदन कहीं बेदार होता जाता हूँ
सब मिरा आब-ए-रवाँ किस के इशारों पे बहा जाता है
घर बनाने में तमाम अहल-ए-सफ़र लग गए हैं
हमवारी
कैसी बला-ए-जाँ है ये मुझ को बदन किए हुए
मेरे हर मिस्रे पे उस ने वस्ल का मिस्रा लगाया
ख़त बहुत उस के पढ़े हैं कभी देखा नहीं है
उसे ख़बर थी कि हम विसाल और हिज्र इक साथ चाहते हैं
इलाज अपना कराते फिर रहे हो जाने किस किस से